Wednesday, March 25, 2009

मजहब नही सिखाता आपस में बैर रखना | पर मजहब में बंट चुका है हिन्दुस्तान हमारा||


बचपन में खूब सुना था,
मजहब नही सिखाता आपस में बैर रखना |
पर मजहब में बंट चुका है हिन्दुस्तान हमारा||

इस आंधी से कौन बचा हैं?
हर एक कट चुका हैं,वतन का दुलारा|
मजहब में बंट चुका हैं हिन्दुस्ता हमारा||

अब करने को क्या बचा हैं?
न खुशियों में बचा हैं आपस में भाईचारा,
निज स्वार्थ की लडाई को बताया मजहब का इशारा|
और शान से घुमा,यहाँ मानवता का हत्यारा,
मजहब में बंट चुका हैं हिन्दुस्ता हमारा||

मन्दिर-मस्जिद के लडाई ही बना जीने का ध्येय हमारा,
खुश होंगे जब बहेगा,किसी कौम का खून सारा|
ना जाने कितने भागो में बटेगा यह गुलिस्ता हमारा,

मजहब में बंट चुका हैं हिन्दुस्ता हमारा||

2 comments:

Unknown said...

i have always been a fan of ur poetry, but this one steals the show. i love the way u hav portrayed the strained relations that we humans have sustained because of our indifference to recognize god.gr8 work khan sahab.keep it up!!!

Choudhary R. Singh said...

ekdam sahi h bhai